Tuesday, December 16, 2008

विकासशील देशों में भी शिक्षा में भारत छठे स्थान तक पिछड़ा क्यों?

आर्थिक रूप से उभर कर आ रहे दुनिया के सात सब से बड़े देशों में शिक्षा के मामले में भारत पिछड़ा हुआ है और इन देशों में उस का क्रम छठा है। शिक्षा के मामले में इन सात देशों में रूस सब से आगे है।
एस्सोचेम (एसोसिएटेड चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स द्वारा कराए गए सर्वे के परिणामों ने बताया है कि भारत की प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा क्षेत्र और जंनसाँख्यिक आधार पर गुणवत्ता के मामले में सब से पिछड़ा हुआ है।

शिक्षा के विकास के मामले में रूस के उपरांत चीन दूसरे स्थान पर रहा है, ब्राजील तीसरा, मेक्सिको चौथा, दक्षिण अफ्रीका पांचवाँ, भारत छठा और इंडोनेशिया सातवाँ स्थान प्राप्त कर सका है।

इस सर्वे ने बताया है कि भारत में प्राथमिक शिक्षा सब से अविकसित अवस्था में है। विद्यार्थी शिक्षक अनुपात सब से खराब भारत में है जो 32:1 है, सब से अधिक चीन और ब्राजील में 19:1 है। प्राइवेट स्कूलों की संख्या के मामले में भारत सब से ऊपर है यहाँ माध्यमिक शिक्षा के 42 प्रतिशत विद्यार्थी प्राइवेट स्कूलों में अध्ययन कर रहे हैं। महिला शिक्षा के मामले में भारत की स्थिति शर्मनाक है। रुस और ब्राजील में स्कूलों में विद्यार्थियों की कुल भर्ती में छात्राओं का अनुपात 56 प्रतिशत से अधिक है जब कि भारत में केवल आठ प्रतिशत।

उच्च शिक्षा के मामले में भारत आगे है। लेकिन विश्व के सब से अच्छे 100 बिजनेस स्कूलों में से केवल एक भारत में है जब कि सब से अच्छे 200 विश्वविद्यालयों में से एक भी भारत में नहीं है।

भारत में शिक्षा की इस दुर्दशा का मुख्य कारण प्राथमिक शिक्षा में पिछड़ापन और स्त्री शिक्षा में बहुत पीछे होना है। स्त्री शिक्षा के मामले में भारत का स्थान 116 है।

Thursday, October 9, 2008

वैश्वीकरण की चपेट में हमारी शिक्षा प्रणाली

सबसे अहम् भूमिका शिक्षक की मानी जानी चाहिए , वह है देश के सुयोग्य देश के सुयोग्य देशवासियों के निर्माण की भूमिकापर हमारे नीति-निर्माताओं के कर्मों क़दमों से यह बात सिर्फ़ दिखावटी लिखित आदर्शों में ही बची हैशिक्षकों के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने आप को उन पुराने आदर्शों के साथ बचाने की हैवैश्वीकरण की चपेट में सबसे ज्यादा शिक्षक शिक्षा प्रणाली ही आए हैं

पिछले 15 सालों से विकास की इस अधूरी चाल से विश्व बैंक के कहने से ही हर क्षेत्र की नीतियों का निर्माण किया जा रहा हैइसकी जड़ में हमारी शैक्षिक संस्थान भी चुके हैंस्कूलों और कालेजों में शिक्षक का कैडर विलुप्त प्राय होता दिख रहा हैशिक्षकों की जगह ऐसे अप्रशिक्षित लोग ले रहें हैं जो तो मानक योग्यता रखते हैं और शिक्षण कार्य में उनकी रुचि या स्थायित्वशिक्षक जिसे गुरु कहा जाता था , अब कहीं शिक्षा मित्र तो कहीं कांट्रेक्ट पर काम-चलाऊ पद नाम धारीशिक्षक संगठनों ने अपनी कमियों के चलते शुरुवात में किए गए विरोध को भी बंद कर दिया हैजाहिर है की वैश्वीकरण की इस आंधी में आज सबसे बड़ी जरूरत शिक्षक नाम के कैडर को बचाने की हैपर वैश्वीकरण के पुरोधाओं के उच्च पदों पर बैठे होने के चलते यह होता दिखे , यह इतना आसान नहीं लगता है

दूसरी चुनौती अपनी शिक्षा प्रणाली को बचाने की हैआर्थिक उदारवाद के इस दौर में आज देश भर में शिक्षा के दुकाने खुल गई हैंकेन्द्र और राज्य सरकारों की नीतियां सरकारी स्कूलों को तिरष्कृत कर निजी स्कूलों को बढ़ावा देने की हैंनिजी स्कूलों को दिए जा रहे बढावों और महिमा-मंडन से , शिक्षा आम आदमी से दूर होती दिख रही हैसरकार निजी स्कूलों को बढ़ावा तो देती है लेकिन सरकारी स्कूलों को सुधरने या निजी स्कूलों की तर्ज पर विकसित कर जानता को गुणवत्ता - पूर्ण शिक्षा देने में असफल रही हैहमारी परम्परागत शैक्षिक प्रणाली धवस्त होती जा रही हैआगे की पीढियां अच्छे कर्मी तो हो सकते हैं लेकिन सुयोग्य नागरिक बने इसमे संदेह है

तीसरी प्रमुख चुनौती है की शिक्षा कैसी हो , यह तय करने वाले शिक्षाविद नहीं बल्कि ब्यूरोक्रेट्स और कारपोरेट घराने के मुखिया हैंसरकार इनकी गोद में बैठ कर शिक्षा के क्षेत्र में बाजारीकरण को को बढ़ावा देने के लिए पब्लिक -प्राइवेट-पार्टनरशिप का राग अलाप रही हैजबकि असल निशाना उन कारपोरेट घरानों को लाभ पहुचने शिक्षा के क्षेत्र से अपना पीछा छुडाने का ही हैदर-असल 3p के जरिये शिक्षा के सरकारी संसाधनों को पब्लिक - प्राइवेट लूट को ही आधिकारिक बनने की कोशिश की जा रही है

जाहिर है इस मुहिम में सभी को जागरूक करना होगा , नहीं तो कंही देर हो जाए ?

Friday, October 3, 2008

उच्च शिक्षा से समझौता

आज के दैनिक जागरण के इस आलेख को साभार यंहा प्रस्तुत कर रहा हूँ .......जगमोहन सिंह राजपूत ,जोकि NCERT के पूर्व-निदेशक रहे हैं द्वारा लिखित यह लेख उच्च शिक्षा में गुणवत्ता केगिरावट के लिए राजनीतिक उदेश्यों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं । वह उच्च शिक्षा से जुड़े कई मुद्दों पर अपनी राय बेबाक हो कर रखते रहे हैं

इस वर्ष भारत सरकार ने छह नए आईआईटी शुरू किए हैं। इनमें प्रवेश हो चुका है। चयनित विद्यार्थियों को शिक्षा देने तथा उसकी व्यवस्था करने का दायित्व पहले से चल रहे आईआईटी संस्थानों को दे दिया गया है। नए संस्थानों के भवन, प्रयोगशाला, उपकरण, पुस्तकालय, छात्रावास इत्यादि का कोई प्रबंध नहीं हुआ है और ही प्राध्यापकों की नियुक्ति हुई है। इस वर्ष जब भारत सरकार का बजट प्रस्तुत किया गया था तो उसमें ग्यारहवीं योजना में तीन आईआईटी स्थापित करने के लिए 50 करोड़ रुपये का प्रावधान था। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने तीन आईआईटी को बढ़ाकर छह कर दिया। साथ में इन सभी को इसी वर्ष खोले जाने का आदेश भी दे दिया। कहा जा रहा है कि नए संस्थानों के व्यवस्थापक सरकार से बार-बार धन आवंटन का अनुरोध कर रहे हैं। इस धनराशि से प्राध्यापक तैनात किए जाएंगे तथा अन्य सुविधाएं मुहैया कराई जाएंगी। अनेक दशकों में निर्मित तथा वैश्विक स्तर पर स्वीकृत गुणवत्ता तथा विश्वसनीयता वाले आईआईटी संस्थानों की गरिमा पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, सरकार को इससे कोई सरोकार नहीं है। यह दुर्भाग्य की स्थिति है। यही नहीं, इससे कुछ अन्य महत्वपूर्ण पहलू भी उजागर होते हैं। आईआईटी एक्ट स्वायत्तता के लिए पूरी तरह सशक्त है। एक बार बजट स्वीकार हो जाने के बाद इन संस्थानों के निदेशकों को सभी अधिकार प्राप्त हो जाएंगे। उन्हें मंत्रालयों से निर्देश लेने की आवश्यकता नहीं है। पिछले कुछ वर्षो में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने लगातार इन संस्थानों को आदेश दिए हैं। सामान्य जन यह देखते रहे हैं कि मंत्रालय के इशारे पर फीस घटाई गई, फिर सरकार बदलने पर निर्णय उलट दिया गया। अध्यापकों की कमी की शिकायत करते रहने वाले इन संस्थानों पर 27 प्रतिशत आरक्षण के लिए सीटें बढ़ाने का दबाव आया। इन्होंने तुरंत स्वीकार कर लिया। इस पर कहीं कोई चर्चा नहीं हुई कि पहले दो साल आवश्यक तैयारी की जाए और उसके बाद प्रवेश दिया जाए। तीन वर्ष में आरक्षण लागू करना था। संस्थान अपने प्रस्ताव को लेकर मंत्रालय पर दबाव डाल सकते थे और यदि आवश्यक होता तो न्यायालय की अनुमति प्राप्त करने का प्रयास कर सकते थे। अथक प्रयासों से बनी अपनी ब्रांड वैल्यू बचाने की कोशिश तो की ही जानी चाहिए थी, लेकिन नए आईआईटी के विद्यार्थियों को अपने यहां स्वीकार करने के आदेश का पालन कर इन्होंने स्वायत्तता के प्रावधानों की धज्जियां उड़ा दीं। प्रश्न चाहे 27 प्रतिशत आरक्षण का हो, नए संस्थानों के विद्यार्थियों को पढ़ाने की जिम्मेदारी का हो या प्राध्यापकों की नियुक्तियों में एससी/एसटी के आरक्षण का हो, सभी निर्णयों में शैक्षिक आवश्यकताएं दरकिनार कर केवल राजनीतिक लाभ को ध्यान में रखकर निर्णय लिए गए हैं। वे शिक्षाविद तथा विद्वान जो इस प्रकार के निर्णयों के दूरगामी परिणामों से परिचित होने चाहिए, यह सब कुछ चुपचाप देखते रहे। यह चिंता का विषय है। संतोष की एकमात्र किरण के रूप में भारत सरकार के सलाहकार तथा देश के प्रतिष्ठित वैज्ञानिक प्रोफेसर सीएनआर राव का बयान आया है। वह मानते हैं कि जिस ढंग से नए आईआईटी खुले हैं उससे उनकी प्रतिष्ठा तथा स्वीकार्यता पर जबरदस्त आंच आएगी। आश्चर्य है कि विचारधाराओं के पक्षधर कहां गायब हो गए हैं? विशेष रूप से वे सेकुलर शिक्षाविद कहां हैं जो स्कूल पाठ्यक्रम में वर्तनी की एक-दो त्रुटियों पर ही प्रदर्शन करने लगते थे? देश का गौरव माने जाने वाले इन संस्थानों के साथ जो ज्यादती हो रही है उसका मुखर विरोध यदि संस्थानों के अंदर से नहीं आता तो बाहर से बुद्धिजीवियों वैज्ञानिकों, व्यावसायिक विशेषज्ञों तथा प्राध्यापकों की ओर से तो अवश्य आना चाहिए। देश के सामने ऐसी कोई आपातकालीन स्थिति नहीं बनी थी कि छह नए आईआईटी इसी वर्ष खोल दिए जाते। इस जल्दबाजी का कारण यही है कि चुनाव का समय नजदीक रहा है। 14 वर्ष तक के सभी बच्चों के लिए नि:शुल्क प्रारंभिक शिक्षा का प्रावधान कर संविधान ने शिक्षा की प्राथमिकता तो पहले ही निर्धारित कर दी थी, लेकिन आज भी यह लक्ष्य कितना दूर है। यदि इसे प्राप्त कर लिया गया होता तो माध्यमिक शिक्षा का विस्तार एक आवश्यक परिणाम के रूप में होता और यह उच्च शिक्षा तक जाता। ज्वलंत सवाल यह भी है कि शिक्षा व्यवस्था का पुनर्निर्माण तथा पुनर्निर्धारण समाज के ज्ञान के लिए कैसे हो? इस पर राष्ट्रव्यापी चर्चा होनी चाहिए। 1953 में आचार्य विनोबा भावे ने कहा था कि कालेज में मुझे बहुत कुछ पढ़ाया गया, मगर ज्ञान नहीं दिया गया। आज इस स्थिति को बदलना है। युवाओं को केवल ज्ञान देना है, परंतु यह भी सिखाना है कि नए ज्ञान का सृजन कैसे हो? इसके लिए चाहिए एक सशक्त संस्थागत संस्कृति, जिसमें अध्ययन-अध्यापन में किसी भी प्रकार की कमी को स्वीकार किया जाए। पिछले तीन-चार वर्षो में अनेक नई संस्थाओं, विश्वविद्यालयों, स्कूलों, शोध संस्थानों की स्थापना की घोषणाएं हुई हैं। सामान्यत: इनका स्वागत होना चाहिए, परंतु जब इन्हें प्रारंभ करते समय मूलभूत आवश्यकताओं तथा संसाधनों का प्रावधान किया जा रहा हो तब यह समाज तथा उसके प्रबुद्ध वर्ग के लिए चिंता का विषय ही बन सकते हैं। उन्हें अपने विचार सरकार तथा जनता के सामने रखने चाहिए। भारत की युवा पीढ़ी के लिए नीतिगत तथा क्रियान्वयन, दोनों स्तर पर ठोस प्रयासों की बेहद आवश्यकता है। नई संस्थाएं तो खुलनी चाहिए, नए कौशल प्रशिक्षण केंद्र भी चाहिए, परंतु इस सबसे अधिक आवश्यक है संस्थानों की स्वीकार्यता, उपयोगिता, गरिमा तथा स्वायत्तता को बनाए रखना और उस पर आंच आने देना। हर स्तर पर शिक्षा की गुणवत्ता के सामने जो खतरे देखे जा रहे हैं उनका समाधान सरकारों पर छोड़ना संभवत: अब उचित नहीं है। विकल्पों की खोज होनी चाहिए तथा समाज के निष्ठावान व्यक्तियों को आगे आना चाहिए

Saturday, September 20, 2008

कौनसे मूल्‍यों पर आधारित हो शिक्षा ?

अक्‍स फिल्‍म में अमिताभ बच्‍चन अपने साथी के साथ रात की पार्टी के बाद बातें कर रहे होते हैं। उनका साथी कहता है कि यार अपने बच्‍चों को सत्‍य, ईमानदारी जैसे मूल्‍य सिखाकर कहीं हम उनके साथ धोखा तो नहीं कर रहे। मैं बहुत से ऐसे रचनाकारों को जानता हूं जिन्‍हें उनके ज्ञान के आधार पर पीएचडी की डिग्री दी जा सकती है लेकिन चूंकि उन लोगों ने हायर सैकण्‍डरी से अधिक पढ़ाई नहीं की है इस कारण वे सरकारी बाबू की पोस्‍ट के लिए भी आवेदन नहीं कर सकते। रामानुजन का उदाहरण तो जग प्रसिद्ध है लेकिन हर गली कूचे में ऐसे रामानुजनों को मैं जानता हूं। मेरे परिवार में ही दोनों तरह के लोग रहे हैं। कुछ एज्‍युकेशन विजार्ड हैं तो कुछ बिल्‍कुल फिसड्डी। हमारे मजबूत पारिवारिक ढांचे ने पढ़ाई में कमजोर सदस्‍यों को अपनी दिशा ढूंढ़ने का वक्‍त दिया और वे खड़े हो गए लेकिन सभी लोग इतने अधिक सौभाग्‍यशाली नहीं होते।
चूंकि परिवार में इस तरह का दोहरापन था सो इस बारे में लगातार चर्चाएं हुई। कई कारण ट्रेस किए गए लेकिन आजतक ऐसा कोई फूलप्रुफ तरीका नहीं मिल पाया है कि आने वाली पीढ़ी को सौ प्रतिशत सफलता दिला दी जाए।

फिर भी कुछ बातें तय है

- वर्तमान शिक्षा व्‍यवस्‍था सोचने का तरीका नहीं बताती
- यह हमें स्‍वतंत्र जीवन की ओर नहीं ले जाती
- यह ऊंच-नीच के लिए आधार बनाती है
- सभी के लिए सहज नहीं है
- ऐसा सांचा है जिसमें एक ही तरह के लोग तैयार होते हैं

एक हल्‍के अंदाज का बयां कुछ इस तरह है कि एक दिन काफी डांट खाने के बाद बच्‍चे ने अपने अभिभावक से कहा 'पहले आप मुझे नर्सरी में भर्ती करेंगे, बाद में पहली दूसरी तीसरी करते हुए बारहवीं कक्षा तक पढ़ाएंगे, बाद में कॉलेज में डालेंगे। इस तरह जब मैं ग्रेजुएट होकर बेकारी के दिन काटूंगा तो आप ही मुझे गालियां निकालोगे कि बाकी लोगों की तरह हो गया।'

दिशा की खोज जारी है...

सिद्धार्थ जोशी

सारे पहलवानों को स्नेह निमंत्रण....


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Wednesday, September 10, 2008

उच्च शिक्षा के भव्य व सुंदर कंगूरे कैसे ?

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत ने अनेक नए शिक्षण संस्थानों, शोध संस्थानों तथा उच्च स्तर की प्रयोगशालाओं की स्थापना की। तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व की दूरदर्शिता तथा वैज्ञानिकों के साथ सम्मानजनक संवाद के कारण इन संस्थाओं ने नाम कमाया। इसमें विकसित नई कार्य संस्कृति के परिणामस्वरूप भारत की वैज्ञानिक तथा तकनीकी क्षेत्र की क्षमताओं को सभी ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सराहा। सारा विश्व आज भारतीयों के 'ज्ञान समाज' के निर्माण में किए जा रहे योगदान को सराहता है। परमाणु ऊर्जा तथा अंतरिक्ष विज्ञान में भारत की श्रेष्ठता उन्हीं संस्थानों में किए गए कार्यो का परिणाम है।

भारत में केवल आठ हजार विद्यार्थी बाहर से आते हैं, जिनमें अधिकांश भारतीय मूल के होते है। जबकि भारत से शिक्षा में स्थानों की कमी के कारण लगभग 80 हजार युवा प्रति वर्ष विदेशों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने जाते है। इस कम संख्या का एक कारण अधिकांश संस्थानों की गुणवत्ता में कमी होना भी है। भारत को उच्च शिक्षा में केवल स्थान बढ़ाने है, बल्कि उसकी गुणवत्ता भी बढ़ानी है। गुणवत्ता की स्थिति क्या है, इस पर भारत के प्रधानमंत्री के एक वक्तत्व को याद करना काफी होगा। मुंबई विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में मनमोहन सिंह ने कहा था कि भारत के दो तिहाई विश्वविद्यालय तथा नब्बे प्रतिशत महाविद्यालय गुणवत्ता के मानकों पर औसत से नीचे कार्य निष्पादन कर रहे है।
नि:संदेह विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में बड़े परिवर्तनों की आवश्यकता है ताकि वहां से तैयार होकर निकलने वाले युवा सम्मानपूर्वक कौशल तथा ज्ञान के क्षेत्र में अपनी स्वीकार्यता पा सकें। भारत सरकार, राष्ट्रीय ज्ञान आयोग, सामान्य जन तथा प्रबुद्ध प्राध्यापक-सभी मानते है कि उच्च शिक्षा में गुणवत्ता कौशलों की कमी एक बड़ी असफलता का बिंदु रहा है।

आरक्षण शैक्षणिक शुल्क के साथ ही संस्था प्रमुखों की नियुक्तियां ऐसे बिंदु रहे हैं, जहां सरकार का दखल इन उच्च शैक्षणिक संस्थाओं के कामकाज को प्रभावित करता रहा है, जो प्रकारांतर से उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को भी प्रभावित करता है। विश्वविद्यालय उच्च शिक्षण संस्थानों की गरिमा और सार्थकता इसी में है कि उनका संचालन शिक्षण स्वायत्त रूप से हो। इसमें दखल एक तरह से राजनीतिक दखल की श्रेणी में आता है और जब राजनीति हावी होती है, तब कहीं कहीं शिक्षा की गुणवत्ता से समझौता करने की स्थिति उभरती है। अक्सर सरकारें ऐसा करते हुए दिखलाई पड़ती हैं बेहतर हो कि सरकार उच्च शिक्षा के क्षेत्र में मात्र सुविधा-प्रदाता की भूमिका निभाए और विभिन्न संस्थाओं को बुद्धिजीवियों, शिक्षाविदों योग्य प्रशासकों के नियंत्रण मार्गदर्शन में विकसित होने दे ताकि सरकार शिक्षण संस्थाओं के बीच सकारात्मक संबंध विकसित हों। यह जरूर ध्यान रखना चाहिए कि शिक्षण संस्थान अमीरों के बच्चों के पिकनिक स्पॉट बनें और वहीं सामाजिक संरचना में अपनी सार्थक भूमिका निभा सकें।

देश के विश्वविद्यालयों से समाज में ऐसी डिग्रियाँ जा रही हैं,जिसका समाज और जीवन की हकीकत से कोई लेना-देना नहीं है इसीलिए 80 प्रतिशत डिग्रीधारी छात्र आज बेरोजगार हैं । दुनिया के दूसरे देशों के मुकाबले हमारे पास तो पीएचडीधारकों तक की बहुत बड़ी कमी है। अकेले अमेरिका पूरे विश्व के 32 प्रतिशत शोधपत्र प्रकाशित करता है। इस मामले में भारत का हिस्सा सिर्फ 2.5 प्रतिशत है , और उनकी मौलिकता भी संदेह के घेरे में है

मेरे अनुसार कुछ फौरी उपाय जो आजमाए जाने चाहिए वह इस प्रकार हैं -


  • उच्च शिक्षा समाज के अधिकांशतः लोगों के पहुँच के अन्दर हो
  • पाठ्यक्रम में समयानुकूल बदलाव लाया जाय, साथ ही यह अनवरत हो
  • प्रायोगिक (प्रैक्टिकल) परीक्षाओं के नाम पर हो रही खानापूर्ति बंद हो और इसकी नीति स्थायी हो
  • छात्रों की अधिकांशतः शिक्षा प्रोजेक्ट आधारित हो , और उनमे भी परिवर्तन लगातार होता रहे बेहतर हो कि , आम जीवन की किसी समस्या से या किसी उद्योग की तकनीकी समस्या से इन प्रोजेक्टों का वास्तविक सम्बन्ध हो।
  • बढ़िया अध्यापकों की आज बहुत कमी है। सरकारी डिग्री पाए साक्षर,जिन्हें कोई और नौकरी नहीं मिलती है , वह उच्च शैक्षिक संस्थानों में अध्यापन कार्य करने लगते हैं दूसरा पहलू भी देखा जाना चाहिए कि इस भौतिक वाद में शिक्षकों को समाज-सुधारक को रोल निभाने की उम्मीद करने के स्थान पर उनसे अपने दायित्व को बढ़िया ढंग से निभाने की ही उम्मीद की जानी चाहिए मेरा तो मानना है की इस मामले में धन की भी कमी नहीं आड़े आनी देनीचाहिए
  • पी एच डी आदि भी अधिकांशत: खानापूर्ति का ही दूसरा नाम बनकर रह गया है। कोई भी शोधकर्ता या गाइड कोई चुनौतीपूर्ण विषय को हाथ में लेकर उसका मौलिक समाधान प्रस्तुत करने का कष्ट उठाने के लिये आवश्यक आत्मविश्वास नहीं जुटाना चाहता।
  • परीक्षा व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है मौलिक सोचने-विचारने और तर्क-वितर्क करने वाला औसत अंक ही जुटा पाता है। रटने की प्रवत्ति के स्थान पर मौलिक सोच,परिष्कार को महत्व दिया जाना चाहिए
  • साथ ही हमें यह भी समझना चाहिए कि प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था संपूर्ण शैक्षिक व्यवस्था की नींव है अतः उस पर माध्यमिक शिक्षा का महल भी खड़ा करने का लिए पूरे नेक मन से किए गए परिवर्तन चाहिए तभी उस महल में उच्च-शिक्षा के सुंदर भव्य अंगूर लग पाएंगे