विद्यालय विद्यार्थियों का भी उतना ही होता है जितना कि शिक्षकों, प्रधानाध्यापकों का और यह सरकारी स्कूलों के लिए विशेष रूप से सही है। शिक्षकों और विद्यार्थियों में परस्पर निर्भरता होती है, खासकर आज के दौर में जब सीखने का काम सूचना की उपलब्धि पर निर्भर करता है और ज्ञान का सृजन उन संसाधनों की नींव पर आधारित जिनके केन्द्र में शिक्षक होता है। शिक्षक और विद्यार्थी दोनों ही एक दूसरे के बिना कार्य नहीं कर सकते। शिक्षा के संपादन को शिक्षक और विद्यार्थी वाली समझ से आगे बढ़ कर प्रेरक व सुगम बना कर विद्यार्थी की तरफ़ आना होगा जिसमें सभी के पास यह सुनिश्चित करने का अधिकार और जिम्मेदारी होगी कि शैक्षिक काम हो।
आज भी कईस्कूलों में बच्चों को शारीरिक और शाब्दिक या गैर–शाब्दिक यातनाएं दी जाती हैं। स्कूल बच्चों को उनके सहपाठियों के सामने बेइज्जत भी करते हैं। आज भी कई शिक्षक, यहाँ तक कि माता–पिता भी, यही सोचते हैं कि बच्चों को इस तरह की सजा या यातना देना बहुत जरूरी है। ये लोग इस तरह के व्यवहार से पड़ने वाले तात्कालिक और दीर्घकालिक अहितकारी प्रभावों से बिल्कुल अनभिज्ञ हैं।
अधिगम के व्यवस्थित अनुकरण के लिए और बच्चों की रुचियों एवं संभावनओं के विकास के लिए उनमें आत्मानुशासन का मूल्य और आदत डालना महत्वपूर्ण होता है। अनुशासन ऐसा होना चाहिए जो काम के संपन्न होने में मदद करे और जो बच्चों की सक्षमता को बढ़ाए। अनुशासन शिक्षक एवं बच्चे दोनों के लिए आजादी, एवंस्वायत्तता बढ़ाने वाला होना चाहिए। यह जरूरी है कि बच्चों को नियम विकसित करने की प्रक्रिया में शामिल किया जाए ताकि वे नियम के पीछे के तर्क को समझें और उसके पालन की अपनी जिम्मेदारी को भी महसूस करें । इस तरह से बच्चे स्वशासन के लिए बनाई गई संहिता की प्रक्रिया के बारे में जानेंगे और लोकतान्त्रिक एवं निर्णय लेने की प्रक्रिया में भाग लेने के लिए जरूरी कौशल विकसित कर पाएंगे। इस तरह से, बच्चे शिक्षकों और विद्यार्थियों एवं आपस में होने वाले मनमुटाव को सुलझाने के लिए खुद भी कुछ तरीके ईजाद कर पाएंगे।
शिक्षक और संसाधन के प्रमुख अगर सत्ता की जगह अधिकार का इस्तेमाल करें तो ज्यादा उचित होगा।औचित्यहीनता और मनमानापन शक्ति के लक्षण होते हैं, उनसे डर पैदा होता है, आदर नहीं। स्कूल के सहभागी प्रबंधन में ऐसी व्यवस्था को विकसित करने की जरूरत है जिसमें बच्चों, शिक्षकों और प्रबंधकों की सार्थक भूमिका हो। इस बात की भी आवश्यकता है कि बच्चों को अपनी परिषद् हेतु प्रतिनिधि चुनने के लिए प्रोत्साहित किया जाए और इसी तरह शिक्षकों, प्रशासकों और अध्यापकों को भी अपने आप को संगठित करना चाहिए।
वर्तमान में स्कूल के नियम और मानक ;परस्म्पराएँ विद्यार्थियों के ‘अच्छे’ और ‘उपयुक्त’ व्यवहार को परिभाषित करते हैं। अनुशासन बनाए रखना ज्यादातर शिक्षकों एवं वयस्क अधिकारियों ;अक्सर खेलवूफद के अध्यापकों और प्रबंधकों का विशेषाधिकार होता है। ये अधिकारी अक्सर कुछ बच्चों को ‘मॉनीटर’ के रूप में रख लेते हैं और उनको नियंत्राण एवं व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी दे देते हैं। इसमें सजा एवं पुरस्कारों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जो लोग इस व्यवस्था को लागू करते हैं वे बिरले ही इन नियमों पर या बच्चों पर पड़ने वाले उस प्रभाव पर प्रश्न उठाते हैं जो इस आज्ञा पालन से बच्चो के संपूर्ण विकास, आत्मसम्मान और शिक्षा में रुचि पर पड़ता है।
आज भी कईस्कूलों में बच्चों को शारीरिक और शाब्दिक या गैर–शाब्दिक यातनाएं दी जाती हैं। स्कूल बच्चों को उनके सहपाठियों के सामने बेइज्जत भी करते हैं। आज भी कई शिक्षक, यहाँ तक कि माता–पिता भी, यही सोचते हैं कि बच्चों को इस तरह की सजा या यातना देना बहुत जरूरी है। ये लोग इस तरह के व्यवहार से पड़ने वाले तात्कालिक और दीर्घकालिक अहितकारी प्रभावों से बिल्कुल अनभिज्ञ हैं।
शिक्षकों के लिए जरूरी है कि वे स्कूलों को नियंत्रित करने वाले नियमों और परंपराओं के पीछे दिए गए मूल-आधार पर चिंतन करें, और यह सोचें कि क्या ये नियम और परंपराएँ हमारी शिक्षा के लक्ष्यों के साथ संगति बिठा पाते हैं? कक्षा में चुप्पी बनाए रखने से सम्बंधित जो नियम होते हैं जैसे –‘एक बार में एक ही बच्चा बोले’ या ‘तभी बोलो जब सही उत्तर पता हो’, इस तरह के नियम समानता और बराबर अवसर देने के मूल्यों को कमजोर बनाते हैं और उन्हें क्षति पहुँचाते हैं। ऐसे नियम उन प्रक्रियाओं को भी हतोत्साहित करते हैं जो बच्चों की सीखने की प्रक्रिया में अंतनिर्हित होती हैं और सहपाठियों में समुदाय की भावना को विकसित होने से भी रोकते हैं। हालांकि इन नियमों से शिक्षकों के लिए कक्षा ‘व्यवस्था की नजर से आसान’ हो जाती है और ‘पाठ्यक्रम पूरा करना’ भी आसान हो जाता है।
अधिगम के व्यवस्थित अनुकरण के लिए और बच्चों की रुचियों एवं संभावनओं के विकास के लिए उनमें आत्मानुशासन का मूल्य और आदत डालना महत्वपूर्ण होता है। अनुशासन ऐसा होना चाहिए जो काम के संपन्न होने में मदद करे और जो बच्चों की सक्षमता को बढ़ाए। अनुशासन शिक्षक एवं बच्चे दोनों के लिए आजादी, एवंस्वायत्तता बढ़ाने वाला होना चाहिए। यह जरूरी है कि बच्चों को नियम विकसित करने की प्रक्रिया में शामिल किया जाए ताकि वे नियम के पीछे के तर्क को समझें और उसके पालन की अपनी जिम्मेदारी को भी महसूस करें । इस तरह से बच्चे स्वशासन के लिए बनाई गई संहिता की प्रक्रिया के बारे में जानेंगे और लोकतान्त्रिक एवं निर्णय लेने की प्रक्रिया में भाग लेने के लिए जरूरी कौशल विकसित कर पाएंगे। इस तरह से, बच्चे शिक्षकों और विद्यार्थियों एवं आपस में होने वाले मनमुटाव को सुलझाने के लिए खुद भी कुछ तरीके ईजाद कर पाएंगे।
शिक्षकों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि नियम कम से कम हों और केवल ऐसे ही नियम बनाए जाएँ जिनका सहजता से पालन हो सकता है। नियम तोड़ने पर विद्यार्थियों को दंड देने से किसी का कोई भला नहीं होता, विशेषकर तब जब उसे तोड़ने के पर्याप्त कारण हों। उदाहरण के लिए ‘कक्षा के शोरगुल’ पर शिक्षक एवं प्रधानाध्यापक हमेशा नाराजगी दिखाते हैं, लेकिन यह भी संभव है कि शोरगुल कक्षा की जीवंतता एवं सक्रियता का प्रमाण हो न कि इसका कि शिक्षक कक्षा को नियंत्रित नहीं कर पा रहे हैं। इस प्रकार समयबद्धता को लेकर भी प्रधानाचार्य अकारण बहुत ही सख्त रुख अपनाते हैं। जो बच्चा ट्रैफिक जाम की वजह से परीक्षा में देरी से आता है उसे दंड नहीं मिलना चाहिए। फ़िर भी हम ऐसे नियमों को उच्च स्तरीय मूल्यों क्र रूप में लागू होते हुए देखते हैं। इन मामलों में अधिकारियों की औचित्यहीनता बच्चों, अभिभावकों एवं शिक्षकों के मनोबल का हास कर देती है। अगर बच्चे से यह पूछना याद रखें कि उसने नियम क्यों तोड़ा और अगर बच्चे की बात सुनी जाए तो बहुत फायदा हो सकता है।
शिक्षक और संसाधन के प्रमुख अगर सत्ता की जगह अधिकार का इस्तेमाल करें तो ज्यादा उचित होगा।औचित्यहीनता और मनमानापन शक्ति के लक्षण होते हैं, उनसे डर पैदा होता है, आदर नहीं। स्कूल के सहभागी प्रबंधन में ऐसी व्यवस्था को विकसित करने की जरूरत है जिसमें बच्चों, शिक्षकों और प्रबंधकों की सार्थक भूमिका हो। इस बात की भी आवश्यकता है कि बच्चों को अपनी परिषद् हेतु प्रतिनिधि चुनने के लिए प्रोत्साहित किया जाए और इसी तरह शिक्षकों, प्रशासकों और अध्यापकों को भी अपने आप को संगठित करना चाहिए।
3 comments:
नियम कम से कम हों और केवल ऐसे ही नियम बनाए जाएँ जिनका सहजता से पालन हो सकता है।---शिक्षक और संसाधन के प्रमुख अगर सत्ता की जगह अधिकार का इस्तेमाल करें तो ज्यादा उचित hoga--
-यही सब से बड़ी बात है..अगर यह समझ आ जाए तो फिर बच्चे स्कूल से नफरत तो नहीं करेंगे कम से कम.
सहल नियम हों जिनका बच्चे सहजता से पालन कर सकें तो निश्चित ही बेहतर होगा.
बहुत अच्छा आलेख.
दिनेशराय द्विवेदी जी का मै धन्यवाद देता हूँ कि उन्होंने सही तथ्यों की ओर मेरा ध्यान दिलाया । आप लोगो का इसी तरह स्नेह और सहयोग मिलता रहे ताकि मै इस कार्य को और अधिक उपादेय बना सकूं।
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