Thursday, October 9, 2008

वैश्वीकरण की चपेट में हमारी शिक्षा प्रणाली

सबसे अहम् भूमिका शिक्षक की मानी जानी चाहिए , वह है देश के सुयोग्य देश के सुयोग्य देशवासियों के निर्माण की भूमिकापर हमारे नीति-निर्माताओं के कर्मों क़दमों से यह बात सिर्फ़ दिखावटी लिखित आदर्शों में ही बची हैशिक्षकों के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने आप को उन पुराने आदर्शों के साथ बचाने की हैवैश्वीकरण की चपेट में सबसे ज्यादा शिक्षक शिक्षा प्रणाली ही आए हैं

पिछले 15 सालों से विकास की इस अधूरी चाल से विश्व बैंक के कहने से ही हर क्षेत्र की नीतियों का निर्माण किया जा रहा हैइसकी जड़ में हमारी शैक्षिक संस्थान भी चुके हैंस्कूलों और कालेजों में शिक्षक का कैडर विलुप्त प्राय होता दिख रहा हैशिक्षकों की जगह ऐसे अप्रशिक्षित लोग ले रहें हैं जो तो मानक योग्यता रखते हैं और शिक्षण कार्य में उनकी रुचि या स्थायित्वशिक्षक जिसे गुरु कहा जाता था , अब कहीं शिक्षा मित्र तो कहीं कांट्रेक्ट पर काम-चलाऊ पद नाम धारीशिक्षक संगठनों ने अपनी कमियों के चलते शुरुवात में किए गए विरोध को भी बंद कर दिया हैजाहिर है की वैश्वीकरण की इस आंधी में आज सबसे बड़ी जरूरत शिक्षक नाम के कैडर को बचाने की हैपर वैश्वीकरण के पुरोधाओं के उच्च पदों पर बैठे होने के चलते यह होता दिखे , यह इतना आसान नहीं लगता है

दूसरी चुनौती अपनी शिक्षा प्रणाली को बचाने की हैआर्थिक उदारवाद के इस दौर में आज देश भर में शिक्षा के दुकाने खुल गई हैंकेन्द्र और राज्य सरकारों की नीतियां सरकारी स्कूलों को तिरष्कृत कर निजी स्कूलों को बढ़ावा देने की हैंनिजी स्कूलों को दिए जा रहे बढावों और महिमा-मंडन से , शिक्षा आम आदमी से दूर होती दिख रही हैसरकार निजी स्कूलों को बढ़ावा तो देती है लेकिन सरकारी स्कूलों को सुधरने या निजी स्कूलों की तर्ज पर विकसित कर जानता को गुणवत्ता - पूर्ण शिक्षा देने में असफल रही हैहमारी परम्परागत शैक्षिक प्रणाली धवस्त होती जा रही हैआगे की पीढियां अच्छे कर्मी तो हो सकते हैं लेकिन सुयोग्य नागरिक बने इसमे संदेह है

तीसरी प्रमुख चुनौती है की शिक्षा कैसी हो , यह तय करने वाले शिक्षाविद नहीं बल्कि ब्यूरोक्रेट्स और कारपोरेट घराने के मुखिया हैंसरकार इनकी गोद में बैठ कर शिक्षा के क्षेत्र में बाजारीकरण को को बढ़ावा देने के लिए पब्लिक -प्राइवेट-पार्टनरशिप का राग अलाप रही हैजबकि असल निशाना उन कारपोरेट घरानों को लाभ पहुचने शिक्षा के क्षेत्र से अपना पीछा छुडाने का ही हैदर-असल 3p के जरिये शिक्षा के सरकारी संसाधनों को पब्लिक - प्राइवेट लूट को ही आधिकारिक बनने की कोशिश की जा रही है

जाहिर है इस मुहिम में सभी को जागरूक करना होगा , नहीं तो कंही देर हो जाए ?

Friday, October 3, 2008

उच्च शिक्षा से समझौता

आज के दैनिक जागरण के इस आलेख को साभार यंहा प्रस्तुत कर रहा हूँ .......जगमोहन सिंह राजपूत ,जोकि NCERT के पूर्व-निदेशक रहे हैं द्वारा लिखित यह लेख उच्च शिक्षा में गुणवत्ता केगिरावट के लिए राजनीतिक उदेश्यों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं । वह उच्च शिक्षा से जुड़े कई मुद्दों पर अपनी राय बेबाक हो कर रखते रहे हैं

इस वर्ष भारत सरकार ने छह नए आईआईटी शुरू किए हैं। इनमें प्रवेश हो चुका है। चयनित विद्यार्थियों को शिक्षा देने तथा उसकी व्यवस्था करने का दायित्व पहले से चल रहे आईआईटी संस्थानों को दे दिया गया है। नए संस्थानों के भवन, प्रयोगशाला, उपकरण, पुस्तकालय, छात्रावास इत्यादि का कोई प्रबंध नहीं हुआ है और ही प्राध्यापकों की नियुक्ति हुई है। इस वर्ष जब भारत सरकार का बजट प्रस्तुत किया गया था तो उसमें ग्यारहवीं योजना में तीन आईआईटी स्थापित करने के लिए 50 करोड़ रुपये का प्रावधान था। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने तीन आईआईटी को बढ़ाकर छह कर दिया। साथ में इन सभी को इसी वर्ष खोले जाने का आदेश भी दे दिया। कहा जा रहा है कि नए संस्थानों के व्यवस्थापक सरकार से बार-बार धन आवंटन का अनुरोध कर रहे हैं। इस धनराशि से प्राध्यापक तैनात किए जाएंगे तथा अन्य सुविधाएं मुहैया कराई जाएंगी। अनेक दशकों में निर्मित तथा वैश्विक स्तर पर स्वीकृत गुणवत्ता तथा विश्वसनीयता वाले आईआईटी संस्थानों की गरिमा पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, सरकार को इससे कोई सरोकार नहीं है। यह दुर्भाग्य की स्थिति है। यही नहीं, इससे कुछ अन्य महत्वपूर्ण पहलू भी उजागर होते हैं। आईआईटी एक्ट स्वायत्तता के लिए पूरी तरह सशक्त है। एक बार बजट स्वीकार हो जाने के बाद इन संस्थानों के निदेशकों को सभी अधिकार प्राप्त हो जाएंगे। उन्हें मंत्रालयों से निर्देश लेने की आवश्यकता नहीं है। पिछले कुछ वर्षो में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने लगातार इन संस्थानों को आदेश दिए हैं। सामान्य जन यह देखते रहे हैं कि मंत्रालय के इशारे पर फीस घटाई गई, फिर सरकार बदलने पर निर्णय उलट दिया गया। अध्यापकों की कमी की शिकायत करते रहने वाले इन संस्थानों पर 27 प्रतिशत आरक्षण के लिए सीटें बढ़ाने का दबाव आया। इन्होंने तुरंत स्वीकार कर लिया। इस पर कहीं कोई चर्चा नहीं हुई कि पहले दो साल आवश्यक तैयारी की जाए और उसके बाद प्रवेश दिया जाए। तीन वर्ष में आरक्षण लागू करना था। संस्थान अपने प्रस्ताव को लेकर मंत्रालय पर दबाव डाल सकते थे और यदि आवश्यक होता तो न्यायालय की अनुमति प्राप्त करने का प्रयास कर सकते थे। अथक प्रयासों से बनी अपनी ब्रांड वैल्यू बचाने की कोशिश तो की ही जानी चाहिए थी, लेकिन नए आईआईटी के विद्यार्थियों को अपने यहां स्वीकार करने के आदेश का पालन कर इन्होंने स्वायत्तता के प्रावधानों की धज्जियां उड़ा दीं। प्रश्न चाहे 27 प्रतिशत आरक्षण का हो, नए संस्थानों के विद्यार्थियों को पढ़ाने की जिम्मेदारी का हो या प्राध्यापकों की नियुक्तियों में एससी/एसटी के आरक्षण का हो, सभी निर्णयों में शैक्षिक आवश्यकताएं दरकिनार कर केवल राजनीतिक लाभ को ध्यान में रखकर निर्णय लिए गए हैं। वे शिक्षाविद तथा विद्वान जो इस प्रकार के निर्णयों के दूरगामी परिणामों से परिचित होने चाहिए, यह सब कुछ चुपचाप देखते रहे। यह चिंता का विषय है। संतोष की एकमात्र किरण के रूप में भारत सरकार के सलाहकार तथा देश के प्रतिष्ठित वैज्ञानिक प्रोफेसर सीएनआर राव का बयान आया है। वह मानते हैं कि जिस ढंग से नए आईआईटी खुले हैं उससे उनकी प्रतिष्ठा तथा स्वीकार्यता पर जबरदस्त आंच आएगी। आश्चर्य है कि विचारधाराओं के पक्षधर कहां गायब हो गए हैं? विशेष रूप से वे सेकुलर शिक्षाविद कहां हैं जो स्कूल पाठ्यक्रम में वर्तनी की एक-दो त्रुटियों पर ही प्रदर्शन करने लगते थे? देश का गौरव माने जाने वाले इन संस्थानों के साथ जो ज्यादती हो रही है उसका मुखर विरोध यदि संस्थानों के अंदर से नहीं आता तो बाहर से बुद्धिजीवियों वैज्ञानिकों, व्यावसायिक विशेषज्ञों तथा प्राध्यापकों की ओर से तो अवश्य आना चाहिए। देश के सामने ऐसी कोई आपातकालीन स्थिति नहीं बनी थी कि छह नए आईआईटी इसी वर्ष खोल दिए जाते। इस जल्दबाजी का कारण यही है कि चुनाव का समय नजदीक रहा है। 14 वर्ष तक के सभी बच्चों के लिए नि:शुल्क प्रारंभिक शिक्षा का प्रावधान कर संविधान ने शिक्षा की प्राथमिकता तो पहले ही निर्धारित कर दी थी, लेकिन आज भी यह लक्ष्य कितना दूर है। यदि इसे प्राप्त कर लिया गया होता तो माध्यमिक शिक्षा का विस्तार एक आवश्यक परिणाम के रूप में होता और यह उच्च शिक्षा तक जाता। ज्वलंत सवाल यह भी है कि शिक्षा व्यवस्था का पुनर्निर्माण तथा पुनर्निर्धारण समाज के ज्ञान के लिए कैसे हो? इस पर राष्ट्रव्यापी चर्चा होनी चाहिए। 1953 में आचार्य विनोबा भावे ने कहा था कि कालेज में मुझे बहुत कुछ पढ़ाया गया, मगर ज्ञान नहीं दिया गया। आज इस स्थिति को बदलना है। युवाओं को केवल ज्ञान देना है, परंतु यह भी सिखाना है कि नए ज्ञान का सृजन कैसे हो? इसके लिए चाहिए एक सशक्त संस्थागत संस्कृति, जिसमें अध्ययन-अध्यापन में किसी भी प्रकार की कमी को स्वीकार किया जाए। पिछले तीन-चार वर्षो में अनेक नई संस्थाओं, विश्वविद्यालयों, स्कूलों, शोध संस्थानों की स्थापना की घोषणाएं हुई हैं। सामान्यत: इनका स्वागत होना चाहिए, परंतु जब इन्हें प्रारंभ करते समय मूलभूत आवश्यकताओं तथा संसाधनों का प्रावधान किया जा रहा हो तब यह समाज तथा उसके प्रबुद्ध वर्ग के लिए चिंता का विषय ही बन सकते हैं। उन्हें अपने विचार सरकार तथा जनता के सामने रखने चाहिए। भारत की युवा पीढ़ी के लिए नीतिगत तथा क्रियान्वयन, दोनों स्तर पर ठोस प्रयासों की बेहद आवश्यकता है। नई संस्थाएं तो खुलनी चाहिए, नए कौशल प्रशिक्षण केंद्र भी चाहिए, परंतु इस सबसे अधिक आवश्यक है संस्थानों की स्वीकार्यता, उपयोगिता, गरिमा तथा स्वायत्तता को बनाए रखना और उस पर आंच आने देना। हर स्तर पर शिक्षा की गुणवत्ता के सामने जो खतरे देखे जा रहे हैं उनका समाधान सरकारों पर छोड़ना संभवत: अब उचित नहीं है। विकल्पों की खोज होनी चाहिए तथा समाज के निष्ठावान व्यक्तियों को आगे आना चाहिए